रांची – कोल ब्लाॅक की नीलामी को लेकर चल रही सियासत पर विपक्ष घिरता जा रहा है. विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी प्रधानमंत्री के बदले हेमंत सरकार को नसीहत दे रहे हैं. वो फरमाते हैं कि विस्थापन, पुनर्वास और पर्यावरण जैसे मुद्दों को लेकर राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी है, वह पूरी तरह से राज्य से जुड़े विषय हैं, जिसका समाधान राज्य सरकार को ही करना है।सवाल उठता है झारखंड के सार्वजनिक उपक्रम तो केंद्र सरकार के अधीन है। इसमें राज्य सरकार से अधिक केंद्र सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका है.केंद्र सरकार के उपक्रमों के कारण लाखों परिवार विस्थापित हुए हैं, जिनका पुनर्वास नहीं हुआ, मुआवजा और नौकरी नहीं मिली। ऐसे लोगों की देनदारी तो केंद्र सरकार की है। क्या इस पर केंद्र सरकार गंभीर है?वो दिन.. वो बयान याद करें बाबूलालअब जरा बाबूलाल मरांडी के दो साल पूर्व आदिवासी हित में दिये गए बयान पर नजर डालिये.जब वे झाविमो के सुप्रीमो थे, तो डबल इंजन की सरकारों को जम कर कोसा करते थे। दुमका में 19 जून 2018 को केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का मुखर विरोध किया था। उनका आरोप था कि सरकार लोगों की जमीन को जोर-जबरदस्ती कर छीनने पर तुली है। विकास के नाम पर झारखंड में 30 लाख एकड़ जमीन ली गई, जिसके विस्थापितों को आज तक न नियोजन मिला और न उनका पुनर्वास हुआ। उन्होंने कहना था कि सरकार विस्थापन और पुनर्वास आयोग का गठन करे, ताकि यह जांच हो सके कि राज्य में अब तक कितने लोग विस्थापित हुए हैं और आज वे किस हाल में हैं। वे आगे फरमाते हैं कि आजादी के बाद विकास के नाम पर जो 30 लाख एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, उसी जमीन पर आज एचईसी, बोकारो का स्टील प्लांट, सिंदरी कारखाना और राज्य के कई डैम और खदान शामिल हैं। उस वक्त उन्होंने कहा था कि पहले हुए जमीन अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित आदिवासी हुए हैं। आज भाजपा सरकार की जो भी नीतियां बन रही हैं, वे आदिवासी विरोधी हैं। मरांडी ने यह भी कहा था कि भूमि अधिग्रहण से पहले सामाजिक प्रभाव के मूल्यांकन का प्रभाव था। अब जो संशोधन लाया जा रहा है उसमेें सामाजिक प्रभाव का प्रावधान समाप्त किया जा रहा है।श्रीमान मरांडी जी आपकी भावना से ओतप्रोत होकर यही बात तो राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी कह रहे हैं।एक दूसरे प्रसंग पर भी गौर फरमाइये. मार्च महीने में आहूत झारखंड विधानसभा के बजट सत्र के दौरान ध्यानाकर्षण के दौरान विधायक विरंची नारायण ने विस्थापन से जुड़े मामलों को उठाया था। उनका कहना था कि बोकारो स्टील प्लांट में सात हजार परिवार आज प्रभावित हुए हैं। इनके परिवारों को न तो उचित मुआवजा मिला, न उनका पुनर्वास हुआ।इस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सदन को भरोसा दिलाया था कि विस्थापन से जुड़ी समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए जल्द ही विस्थापन आयोग का गठन किया जाएगा। सदन में उन्होंने कहा था कि विस्थापन का सवाल कई दर्द लिए हुए है। कई पीढियां बीत गईं, लेकिन विस्थापितों को न्याय नहीं मिला। कोल ब्लॉक नीलामी प्रकरण सामने आने के बाद भी तो हेमंत सोरेन आज भी यही बात कह रहे हैं। उनका तो अभी तक स्टैंड नहीं बदला है, लेकिन बाबूलाल मरांडी के सुर तो बदले ही, स्टैंड भी बदल गये।अब तो झामुमो से जुड़े कई संगठन भी प्रधानमंत्री के फैसले के खिलाफ खुलकर सामने आ रहे हैं। इन संगठनों ने केंद्र से निर्णय वापस नहीं लेने के स्थिति में झारखंड से कोयला खनन तक को प्रभावित करने की चेतावनी दी है। इसमें उन्हें ट्रेड यूनियनों का भी समर्थन मिल रहा है। खदान क्षेत्रों में सक्रिय तमाम कोयला श्रमिक संगठनों ने इस निर्णय के खिलाफ रणनीति बनायी है।15 लाख से अधिक लोग विस्थापित हुएसरकारी आंकड़े में एक नजर डालें तो वर्ष 1951 से लेकर 1995 तक झारखंड में विस्थापित हुए लोंगों की कुल संख्या 15,03,017 है, जिनमें से 6, 20,372 एससी हैं। एसटी के 2,12,892 और अन्य श्रेणियों के 6,76,575 के लोग शामिल हैं।दरअसल, भूमि अधिग्रहण अधिनियम की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें पुनर्वास के लिए कोई प्रावधान नहीं है, यह केवल मुआवजे का प्रावधान करता है। मुआवजा केवल भूमि के मूल्य के लिए दिया जाता है, हालांकि जब अनुसूचित क्षेत्रों में विस्थापन होता है तो सवाल सिर्फ जमीन के बारे में नहीं होता है, क्योंकि इन क्षेत्रों के निवासी अपने भोजन और अन्य जरूरतों के पचास प्रतिशत से अधिक के लिए जंगल पर निर्भर करते हैं। इसलिए जब अनुसूचित क्षेत्रों में विस्थापन होता है, तब भूमि अधिग्रहण अधिनियम में शामिल विशेष शर्तों का ध्यान में नहीं रखा जाता है।अब बाबूलाल मरांडी खुद बतायें कि कोल ब्लाॅक नीलामी से पूर्व विस्थापन, पुनर्वास और नियोजन के लिए स्पष्ट और पारदर्शी कानून कब बनवा रहे हैं? हेमंत सोरेन तो आयोग के गठन के लिए तैयार हैं.प्रधान सेवक के फैसले के सामने सभी नतमस्तकदरअसल, प्रधान सेवक के निर्णय के आगे सभी नतमस्तक हैं. प्रधान सेवक का आदेश ही उनके लिए सर्वोपरि है. अब सुप्रीम कोर्ट का चाहे जो फैसला आये, लेकिन मरांडी जी इस मामले में एक्सपोज हो गए हैं. वहीं हेमंत सोरेन का स्टैंड आईने की तरह साफ है. वहीं आदिवासी समाज की अस्मिता की रक्षा में मरांडी जी बुरी तरह पिछड़ते नजर आ रहे हैं.