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Monday, December 23, 2024
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मेहनतकशों के लिए चुनौतियों से भरा है मई दिवस

नारायण विश्वकर्मा

मई दिवस दुनिया का एकमात्र दिन है जिसे सारी मानवता त्योहार की तरह मनाती है। इस दिन सभी महाद्वीपों में, दुनिया की हर भाषा, हर बोली में लगभग एक जैसे नारे लगते हैं। दुनिया भर में मई दिवस मनाए जाने की शुरुआत 1889 से हुई थी। इस तरह महज 133 साल में मई दिवस का यह दर्जा हासिल कर लेना मानव इतिहास की अनोखी मिसाल है। कोई भी दिन, विशेषकर मजदूरों से जुड़ा दिन सहज ही इतना लोकप्रिय नहीं होता। सच कितना भी खुल्लमखुल्ला और प्रमाणित क्यों न हो, वह अपने आप लोगों के बीच नहीं पहुंचता। खासतौर से तब, जब सत्ता प्रतिष्ठान के सारे अंग- पुलिस, न्यायपालिका और अखबार पूंजी के चाकरों की तरह काम कर रहे हों। अंतत: वही विचार जिंदा रहते हैं जिनके लिए लोग मरने को तैयार हों। मई दिवस इसी जिंदा विचार का नाम है। दरअसल 2022 का मजदूर दिवस दुनिया के मेहनतकशों के लिए उपलब्धि, विस्तार और उसी के साथ चुनौतियों का मई दिवस है।

नदउदार नीतियों के खिलाफ देशव्यापी हड़तालों की लंबी श्रृंखला

हाल के दौर में दुनिया भर के सभी देशों में जितनी अभूतपूर्व जनप्रतिरोध की कार्यवाहियां, हड़तालें हुई हैं उतनी पिछले कई दशकों में नहीं हुईं। भारत के मेहनतकशों ने इसी 28-29 मार्च को दो दिन की शानदार हड़ताल की, जो नवउदार नीतियों के विरुद्ध हुई देशव्यापी हड़तालों की श्रृंखला में 21वीं थी। पिछली चार हड़तालों में भागीदारों की संख्या 15, 18, 25 करोड़ से होते हुए इस बार 30 करोड़ तक जा पहुंची।  हमारे पड़ोस में बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान सहित जापान और इंडोनेशिया की ट्रेड यूनियनों ने भी इस तरह के आंदोलन किए। फ्रांस, डेनमार्क, ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, स्पेन सहित अन्य यूरोपीय देशों में हड़तालों का लगातार चला सिलसिला आज भी जारी है। पिछले अक्तूबर में तो इतनी हड़तालें हुईं कि उसे ‘स्ट्राइक्टूबर’ ही घोषित कर दिया गया। इन सभी हड़तालों में सिर्फ औद्योगिक मजदूर ही शामिल नहीं थे, उनके साथ नर्स, शिक्षक, डॉक्टर्स, स्वास्थ्यकर्मी, परिवहन कर्मचारी, गैस कर्मचारी, टैक्सी ड्राइवर्स, मॉल के कर्मचारी भी शामिल इन संघर्षों की कई विशेषताएं हैं।

सरकारों में बिठाए गए दलालों से मेहनतकश सावधान रहें

पिछले तीन दशकों में आमतौर से और 2008 के विश्वव्यापी संकट के बाद से खासतौर से पूंजी और उसके मुनाफे खतरे में पड़े हैं, अस्थिरता बढ़ी है और सरकारों में बिठाए गए दलालों के जरिए इसका सारा बोझ मेहनतकशों पर डाला जा रहा है, तो दूसरी तरफ स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल सहित सार्वजनिक खर्चों में कटौती और उनके निजीकरण के जरिए जीवन का खर्च बढ़ाया जा रहा है। इस सबके खिलाफ आक्रोश का विस्फोटक होते जाना इस कालखंड की एक विशेषता है। इसकी दूसरी खासियत है, मजदूर आंदोलन द्वारा जनता के बाकी हिस्सों- किसानों, छात्रों, महिलाओं की मांगें उठाना। इसका असर यह हुआ है कि ये तबके भी मजदूर आंदोलन का हिस्सा बने हैं। मजदूरों की हड़तालें आम हड़तालों का रूप ले रही हैं। इनका राजनीतिक असर भी हुआ है। हाल के संघर्षों की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि मेहनतकश न केवल अपने तात्कालिक मुद्दों को उठा रहे हैं, बल्कि उन नीतियों के विरुद्ध भी लड़ रहे हैं जिनकी वजह से ये तात्कालिक समस्याएं उपजती हैं। इस तरह वे सिर्फ परिणाम से ही नहीं, कारण से भी लड़ रहे हैं और अनजाने ही श्रमिक आंदोलन की उस बदनाम व्याधि से उबरने की कोशिश कर रहे हैं जिसे ‘अर्थवाद’ कहा जाता है।

ट्रेड यूनियनों के साझे मंच के कारण कृषि कानून निरस्त हुए

मिसाल के तौर पर भारत के किसान आंदोलन ने चार लेबर कोड्स का सवाल अपनी मांगों में जोड़ा तो देश की ट्रेड यूनियनों के साझे मंच ने तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग दोहराई। दुनिया के अनेक देशों के श्रमिक आंदोलनों ने पूंजी की लूट से होने वाली पर्यावरणीय हानि का सवाल भी अपनी सक्रियता के मुद्दों में शामिल किया है। इन संघर्षों का मूल्यांकन करते समय एक बात याद रखना जरूरी है। पिछली शताब्दी की आखिऱी दहाई में दुनिया में समाजवादी व्यवस्था को लगे आघात और उसके बाद विश्व के एकध्रुवीय हो जाने ने सभी देशों की, तब तक की, अर्थव्यवस्थाओं पर विश्वबैंक, आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ का त्रिशूल ही नहीं घोंपा था, एक मनोवैज्ञानिक असर भी डाला था। पूंजीवाद की चिरंतरता के भरम की बौछारें की गयीं। ऐसा नहीं कि इनका असर नहीं हुआ। लोगों के सोचने, समझने और गतिशील होने में यह दिखा। इसका विस्तार लोगों की इस मानसिकता में दिखा कि ‘अब कुछ नहीं हो सकता, अब आंदोलन-संघर्ष वगैरह करने का कोई लाभ नहीं है।’ चूंकि ये नीतियां दुनिया भर में अमल में लाई जा रही हैं, इसलिए यह प्रभाव भी विश्वव्यापी था। हाल के विश्वव्यापी आंदोलनों ने काफी हद तक इसे खंडित किया है।

मजदूर यूनियनों ने कई बार सरकारों को घेटने टेकने पर मजबूर किया

बहरहाल, इसका मतलब यह नहीं है कि सब कुछ ‘हरा-हरा’ ही है। साम्राज्यवादी पूंजी इतनी आसानी से हार स्वीकार नहीं करती। वे जब ऊपर से किए गए दमन से कुचलने में नाकाम होते हैं तो नीचे से विभाजन और विघटन पैदा करने में पूरी ताकत लगा देते हैं। मजदूरों के हक की लड़ाई के लिए मजदूर यूनियनों ने कई बार सरकारों को घेटने टेकने पर मजबूर किया है. हालांकि कई बार सरकार या निजी कंपनियों के बहकावे में मजदूर यूनियनों के लीडर बहक भी जाते हैं. इससे आंदोलन कमजोर जरूर होता है पर यह कुछ क्षणों के लिए होता है. मजदूरों के आगे अंततः सरमाएदारों को झुकना पड़ा है. इसकी सबसे बड़ी मिसाल किसान आंदोलन है.  

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