26 वर्ष की उम्र में महाश्वेता देवी (1926-2016) ने यह पुस्तक लिखी। मैंने इस पुस्तक से कुछ उक्तियाँ पहले ली है, लेकिन अब स्टोरीटेल ऑडियो पर दस घंटे लगा कर सुनी। गाड़ी में, टहल में, जिम में। उन जगहों पर, जहाँ किताब हाथ में रखना मुमकिन नहीं था। यूँ भी यह कथा सुनने लायक ही है। बुंदेले हरबोलों के बदले अब डिजिटल कथावाचक आ गए हैं। अरन्या ने इसे बहुत ही अच्छी तरह से, उपयुक्त विराम लेते हुए पढ़ा है।महाश्वेता देवी की यह रचना संभवतः उनकी सभी रचनाओं से अलग है। यह उपन्यास नहीं, नॉन-फ़िक्शन है, और लिखी भी उसी तरह गयी है। दस्तावेज़ों के हू-ब-हू अनुवाद, और उद्धरण रखे गए हैं। महाश्वेता देवी ने स्वयं इसके बारे में कहा था कि पहले उन्होंने कलकत्ता में बैठे-बैठे किताबों को पलट कर तीन सौ पृष्ठ लिख लिए। फिर एक दिन उसे फाड़ कर फेंक दिया!वह नवयुवती, जिन्होंने कभी कोई किताब नहीं लिखी थी, बंगाल से कम निकली थी, वह बुंदेलखंड से मालवा की यात्रा पर निकल पड़ी। लक्ष्मीबाई को झाँसी में जाकर ढूँढा, लोगों से कहानियाँ सुनी, दस्तावेज़ों से मिलान किए, सब परख कर फिर से अपनी किताब शुरू की। अब उसमें किताबी स्रोत के साथ वे स्रोत भी थे, जो किताबों में नहीं थे, वहाँ के लोक में थे। वहाँ की मिट्टी में थे। कुछ उसी तरह जैसे अमृतलाल नागर ने ‘गदर के फूल’ लिखा, लेकिन महाश्वेता देवी का कथ्य उस तरह बिखरा हुआ न होकर एक किरदार पर केंद्रित है।वह लक्ष्मीबाई को पहले कुछ तटस्थता से देखती हैं, कुछ खोजी नज़रों से, कुछ प्रश्नों के साथ भी। लेकिन जैसे-जैसे पुस्तक आगे बढ़ती है, वह अपनी नायिका के मोह में कुछ अन्यथा महत्वपूर्ण किरदारों पर भी प्रश्न करने लगती है। मसलन तात्या टोपे और राव साहब को भी वह सवालों के घेरे में लाती है। पुस्तक के अंत तक वह लक्ष्मीबाई से पूरी तरह मोहित हो जाती हैं, और वहाँ कुछ तथ्यात्मक त्रुटियाँ भी संभव है।लेकिन, इसे उपन्यास कहना उचित न होगा। इसमें कल्पना का स्कोप बहुत कम रखा गया है। कई हिस्सों में भाषा सपाट और अखबारी है। मैं यहाँ दूसरा उदाहरण नहीं रखूँगा, पाठकों को मालूम ही है, लेकिन झाँसी की रानी पर लिखते हुए औपन्यासिक मोह खींचता ही होगा। ऐसा लगता होगा कि हर एक बात अलंकृत कही जाए, अतिशयोक्ति की जाए। उससे बच कर कथ्य रखना इस पुस्तक की खूबी है।बहरहाल अगर कोई किसी कोने में इस पुस्तक से अब तक बचे रह गए हों, तो जहाँ मिले, जिस रूप में मिले, पढ़ या सुन जाएँ।
Credit – Praveen Jha