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Monday, December 23, 2024
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ओबीसी का प्रतिनिधित्व : इतिहास, वर्तमान और भविष्य

संदीप यादव

कोई भी समाज जो अपना इतिहास याद नहीं रखता है उसका वर्तमान और भविष्य दोनों संकटग्रस्त हो जाता है। तमिलनाडु का ओबीसी समाज ई वी रामास्वामी पेरियार के प्रति कृतज्ञ है। पूरे तमिलनाडु में आपको जगह-जगह ई वी रामास्वामी पेरियार, सी एन अन्नादुरै, के कामराज, एम जी रामचंद्रन व  जे जयललिता की मूर्तियां मिल जायेंगी।तमिलनाडु के दूरदराज इलाकों में भी  सामाजिक न्याय के सिपाहियों की मूर्तियां लगी हैं,जैसे तिरूपत्तूर के छोटे से कस्बे में वीपी सिंह के नाम पर एक मैरिज हॉल का नाम है। उसी तरह से पेरियार मनिअम्मई यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी का नाम अर्जुन सिंह के नाम पर रखा गया है।ओबीसी के लोगों के लिए अगस्त का महीना एक खास महीना है 7 अगस्त 1990 को वीपी सिंह ने मंडल कमीशन लागू किया था हालांकि ओबीसी को रिजर्वेशन की शुरुआत सितंबर 1992 से ही हो पाई थी। इसी महीने 25 अगस्त को बी पी मंडल जी का जन्म बनारस में हुआ था जो ओ बी सी जातियों के बड़े बुद्धिजीवी कहे जा सकते हैं। बी पी मंडल 1968 में 30 दिन तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे, दो बार लोकसभा के सदस्य रहे, वो एक कानूनविद और मानवतावादी थे। उन्होंने अपना आराम का जीवन त्याग कर ओबीसी के लोगों के लिए न्याय के संघर्ष की नींव रखी।आजादी से पहले उन्नीसवीं व बीसवीं शताब्दी के दौरान भारत अनेक ब्राहमणवाद विरोधी राजनीति सामाजिक आंदोलन का गवाह रहा है। दक्षिण और पश्चिम भारत से उठने वाले इस आंदोलनों ने  ब्राह्मणों के वर्चस्व पर प्रश्न उठाया। शिक्षा रोजगार और राजनीतिक पदों के मामले में वंचित तबके के लिए समान अवसर की मांग की। महात्मा ज्योति राव फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार ई वी रामास्वामी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में चले आंदोलनों ने आत्म सम्मान हासिल करने और समानतावादी समाज के निर्माण के लिए होने वाली लड़ाई पर अपने ऐतिहासिक चिन्ह छोड़े हैं।पहला मंडल कमीशन 1953 में जवाहर नेहरू की सरकार में बना जिसे हम काका कालेलकर कमीशन के रूप में जानते हैं। काका कालेलकर जाति से ब्राह्मण थे और नेहरू के नजदीक थे। काका कालेलकर एक साहित्यकार भी थे उन्होंने कई निबंध और कई किताबें लिखी हैं। राष्ट्रपति के आदेश से,संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत 29 जनवरी, 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ। काका कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को सौंपी जिसमें ओबीसी के लिए क्लास वन की नौकरियों 25% रिजर्वेशन, क्लास टू की नौकरियों में 33% रिजर्वेशन व क्लास थ्री की नौकरियों में 40% रिजर्वेशन की संस्तुति थी। सभी तकनीकी और पेशेवर संस्थानों की 70% सीटों को पिछड़े वर्ग के योग्य छात्रों के लिए आरक्षित किया जाए यह भी एक संस्तुति थी।काका कालेलकर कमीशन के तीन सदस्यीय आयोग के सदस्यों के बीच जाति के प्रश्न को लेकर मतभेद हुआ और उसकी वजह से उस आयोग को भंग कर दिया गया। नेहरू जी के मंत्रिमंडल में ज्यादातर ब्राह्मण वर्चस्व था भारत के प्रथम गृह मंत्री और उनके मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सहयोगियों ने इस संस्तुति का विरोध किया और उन सभी ने अपने तर्कों से नेहरू को समझाया कि इस रिपोर्ट के लागू होने से भारत में जातिवाद बढ़ेगा। यह रिपोर्ट अपूर्ण डेटा पर तैयार की गई है इसलिए इसे लागू भी नहीं किया जा सकता, इस रिपोर्ट के न लागू होने में देश के पहले गृह मंत्री श्री जी बी पंत का महत्वपूर्ण योगदान था । निराधार तर्क देकर इस रिपोर्ट को कूड़ेदान में डाल दिया गया। जनता को समझाने के लिए एक तर्क गढ़ा गया कि कमेटी की रिपोर्ट बहुत शोध परक ढंग से नहीं तैयार की जा सकी  इसलिए इस कमेटी की रिपोर्ट को लागू नहीं किया जा सकता।1978 में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री चुने गए, उसी साल बी पी मंडल के नेतृत्व में दूसरा ओबीसी कमीशन बना जिसे मंडल कमीशन के नाम से जाना जाता है। मंडल आयोग ने 21 मार्च 1979 को अपना काम शुरू किया और 31 दिसंबर 1980 को अपना प्रतिवेदन भारत के राष्ट्रपति को सौंप दिया। काका कालेलकर आयोग की हुई आलोचना और सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न निर्णयों से सबक लेते हुए मंडल आयोग में अनेक स्रोतों से आंकड़ों का संकलन किया। देश के 406 जिलों में से 405 जिलों में एक व्यापक सामाजिक व शैक्षणिक सर्वेक्षण कराया गया था। इस सर्वेक्षण में बेहतरीन विशेषज्ञों और प्रतिभाओं की सहायता से जो आँकड़े इकट्ठे किए गए उनको 31 सारणियों में वर्गीकृत किया गया। विशेषज्ञों की मदद से आयोग ने 11 संकेतकों की खोज की जिसको तीन हिस्सों- सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक में वर्गीकृत किया गया। जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिन नहीं चली 1980 में दोबारा इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री चुन के आयी और उन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया।भारत में आरक्षण की शुरुआत ओबीसी के नायकों ने की थी, भारत में सबसे पहले आरक्षण की शुरुआत छत्रपति शाहूजी महाराज जी ने अपने राज्य में 1902 में शुरू की थी। छत्रपति शाहूजी महाराज के बाद आरक्षण की शुरुआत मद्रास प्रेसिडेंसी में हुई और इसकी मांग सबसे पहले वहां नवनिर्मित जस्टिस पार्टी ने उठाई। जस्टिस पार्टी का मानना था कि पूरे मद्रास प्रेसिडेंसी में 3% ब्राह्मण 85% पदों पर काबिज थे अगर ऐसा ही चलता रहा तो दूसरी जातियां तो कभी कोई प्रगति ही नहीं कर पाएंगी इसलिए उनके अनुसार आरक्षण का फार्मूला दूसरी जातियों को ऊपर लाने के लिए जरूरी था। इस मांग को जस्टिस पार्टी ने एक आंदोलन में बदल दिया बाद में जस्टिस पार्टी की मांग पर मद्रास प्रेसिडेंसी में आरक्षण लागू हुआ। उसी शुरुआत व पेरियार के नेतृत्व की बदौलत अभी तमिलनाडु में 69% आरक्षण है। मद्रास प्रेसीडेंसी के बाद 1921 में मैसूर के वडियार राजाओं ने इसकी शुरुआत अपने राज्य में की। वडियार वंश की स्थापना यदुराय वडियार ने की थी।वडियार वंश के लोग द्वारका से मैसूर विस्थापित हुए थे, उनको कुछ लोग यदुवंश से जोड़ते हैं, हालांकि कर्नाटक के कुछ इतिहासकार उनको कर्नाटक का निवासी ही बताते हैं और उनकी जाति `अरसु’ बताते हैं।मद्रास प्रेसिडेंसी की देखा देखी मैसूर प्रेसिडेंसी ने भी अपने शासन में आरक्षण की व्यवस्था की।1 फरवरी 1986 को बाबरी मस्जिद का ताला तोडा गया, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। मंडल रिजर्वेशन की प्रतिक्रिया के रूप में कमंडल की राजनीति की यह शुरुआत थी। ओबीसी समाज के उत्थान की जब शुरुआत होनी थी तब राम मंदिर की राजनीति से ओबीसी के उत्थान को रोका गया। सत्ता में मौजूद स्वर्ण जाति के लोग यह बात जानते थे की सत्ता के तमाम संसाधनों पर उनका कब्जा है, ओबीसी का रिजर्वेशन लग जाने के बाद उन्हें इन संसाधनों में हिस्सेदारी ओबीसी को देनी होगी। राम मंदिर के मुद्दे ने एक तो मंडल कमीशन के आंदोलन को कुंद कर दिया और  दूसरा राम मंदिर के आंदोलन में ओबीसी के लोगों की ऊर्जा ह्रास कर दी।इससे भारत के संसाधनों पर काबिज तबके को दो फायदा हुआ एक तो मंडल कमीशन का आंदोलन पटरी से उतर गया, दूसरा वही ओबीसी के लोग जो भविष्य में साधन संपन्न तबके के लिये चुनौती हो सकते थे वह एक ऐसे काम में लग गए जो उनको ज्ञान,विकास व आधुनिक दुनिया से कोशों पीछे ले गया। ओबीसी के लोगों का हिंदुत्व के झंडे को ढोने के पीछे का मुख्य कारण उनका सांस्कृतिक सामाजिक और धार्मिक रूप से हिंदुत्व के पूरी तरह से कब्जे में होना था,जबकि उसके उलट दलित समाज बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की आवाज पर बौद्ध धर्म को अपनाकर काफी हद तक हिंदुत्व के चंगुल से बाहर निकल चुका था और वह अपनी मुक्ति का रास्ता हिंदुत्व के बाहर बौद्ध धर्म और दूसरे धर्मों में तलाश कर रहा था, जो ओबीसी की जातियाँ नहीं कर पाई। राम मंदिर आंदोलन के खिलाफ मंडल आंदोलन के तेज नहीं होने का एक और मुख्य कारण तमिलनाडु जैसे राज्य में ओबीसी का पहले से ही रिजर्वेशन होना था। इसी कारण मंडल कमीशन को दक्षिण से बहुत ज्यादा सहयोग नहीं मिला और मंडल आंदोलन कुछ हद तक इन कारणों से भी कमजोर पड़ गया। तमिलनाडु में ओ बी सी के लिए ई वी रामास्वामी पेरियार ने खूब संघर्ष किया था।ओबीसी के पूरे 27% रिजर्वेशन में अभी भी ग्रुप ए की नौकरियों में केवल 13% सीटें ही ओबीसी की भर पाई है, ग्रुप बी की नौकरियों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व लगभग 15% है। ग्रुप ए में अब तक जो भी 27% में से ओ बी सी को रिजर्वेशन मिलता आया है उसकी अभी आधी भी सीट नहीं भर पाई है। ग्रुप बी में भी लगभग आधी सीटें ही भरी गई है।फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया जिसमें कहा गया कि पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। जनवरी 2019 में भी सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया कि भारत के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति में पूरे विश्वविद्यालय को एक यूनिट नहीं माना जाएगा, बल्कि डिपार्टमेंट को एक यूनिट माना जाएगा। 13 पॉइंट रोस्टर में ओबीसी, एससी,एसटी सीटों का नुकसान था। भारत के विश्वविद्यालय में जबरदस्त आंदोलन हुआ जिसमें ओ बी सी, एससी, एसटी के लोग एक साथ शामिल हुए और जमकर संघर्ष किया।अंत में हारकर भारत सरकार को कोर्ट के निर्णय को वापस लेते हुए पूर्व की व्यवस्था को लागू करना पड़ा।2017 से ओबीसी को मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट नीट में केंद्र के कोटे में रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है जिसकी वजह से पिछले 3 सालों में ओबीसी समुदाय को लगभग मेडिकल एडमिशन में 11 हज़ार सीटों का नुकसान हो चुका है। 2 सप्ताह पहले चेन्नई हाई कोर्ट ने भारत सरकार को निर्देश दिया है कि वह इस मुद्दे पर एक कमेटी गठित करे और इस मुद्दे का हल निकाले।ओबीसी समाज को पूरी तरह से अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी है तो उसे अपने स्वार्थरहित नेताओं, बुद्धिजीवियों और अपने संघर्ष के प्रतीकों को नहीं भूलना होगा और अपनी प्रगति के लिये लगातार संघर्ष करते रहना होगा तभी ओ बी सी समाज के लोगों में बदलाव संभव है।  संदीप यादव(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर व एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।इससे पूर्व भारत के कई विश्वविद्यालयों में स्थायी शिक्षक के रूप में पढ़ा चुके हैं।) 

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